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दोहा / भाग 7 / रत्नावली देवी

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सात पैग जा सँग भरे, ता सँग कीजै प्रीति।
सब विधि ताहि निबाहिये, रतन बेद की रीति।।61।।

जाने निज मन दयो, ताहि न दीजै पीठि।
रतनावलि तापै रषहु, सदा प्रेम की दीठि।।62।।

धनसुष जनसुष बंधुसुष, सुत सुख सबहिं सराहि।
पै रतनावलि सकल सुष, पिय सुष पटतर नाहिं।।63।।

माता पिता भ्रातादि सब, जे परिमित दातार।
रतनावलि दातार इक, सरबस को भरतार।।64।।

आपनु मन रतनावली, पिय मन मँह करि लीन।
सतीसिरोमनि होइ धनि, जस आसन आसीन।।65।।

चतुर बरन को विप्र गुरु, अतिथि सबन गुरु जानि।
रतनावलि तिमि नारी को, पति गुरु कह्यो प्रमानि।।66।।

देति मन्त्र सुठि मीत सम, नेहिनि मातु समान।
सेवति पति दासी सरिस, रतन सुतिय धनि जान।।67।।

रतन देह पति को भयो, तोहि कहा अधिकार।
पति समुहे पाछे रतन, रहि पति चित अनुसार।।68।।

बचन हेत हरिचंद नृप, भये सुपच के दास।
बचन हेत दसरथ दयो, रतन सुतहि बन बास।।69।।

नर अधार बिनु नारि तिमि, जिमि स्वर बिनु हल होत।
करनधार बिनु उदधि जिमि, रतनावलि गति पोत।।70।।