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धीरहि धीरहि ऐलै चैकठिया धरि ठाढ़ि, केबड़िया धरि ठाढ़ि हे / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

गर्भवती नारी, जिसे अभी अपने गर्भ का अंदाज नहीं है, अपने पति के पास जाती है। पति उस समय मालिन के साथ घर के अन्दर है। वह दरवाजा खोलने को तैयार नहीं है। उसने अपनी सास से इसकी शिकायत की। सास ने बहू को समझाया कि जाने दो, अभी तुम अपने महल में आराम करो, तुम्हारी गोद भरनेवाली है।
पति बच्चा हो जाने के कुछ दिनों बाद पत्नी से दरवाजा खोलने का अनुरोध करता है, लेकिन वह अपनी अस्वस्थता और बच्चे के रोने का बहाना कर देती है तथा पति से अन्यत्र सोने को कहती है। अंत में, पति अपनी हार स्वीकार कर लेता है तथा दरवाजा खोलने का फिर से अनुरोध करता है।

धीरहिं धीरहिं<ref>धीरे-धीरे</ref> अयलै चौकठिया धरि ठाढ़ि<ref>खड़ी है</ref>, केबड़िया धरि ठाढ़ि हे।
खोलू राजा खोलू केबड़िया, महलिया जाके सोइब, माथा मोर पिराबै<ref>दर्द करता है</ref> हे।
मालिन सँग हमें सूतब, जाहो रानी रंग महलिया, जाके सोइ रहऽ हे॥1॥
मँचिया बइठली तोहें सासु, से ठकुराइन सासु, राउर पूता मलिनियाँ सँगे हे।
पुतहू, तोहरा क होतै नंदलाल, मलिनियाँ सँगे सूते देहू, तुहूँ महलिया सोइ रहू हे॥2॥
धीरहिं धीरहिं अयलै चौकठिया धरि ठाढ़, केबड़िया धरि ठाढ़ रे।
खोलू रानी खोलू सोने के केबड़िया, महलिया में सोबे देहू हे॥3॥
राजा, माथा मोर पिराबे, बलकवा मोर रोबइ हे।
राजा, मूठि एक लेहू भुसबा, भुसघरवा<ref>वह घर जिसमें भूसा रखा जाता है</ref> जा के सोइ रहू हे॥4॥
रानी, बहै के पुरबैया बहै पछिया, भूसा उड़ि मुख पड़े हे।
रानी हे, खोलू आजु केबड़िया, महलिया में सोबे देहू हे।
तोहिं आज जीतल हम हारलें, महलिया में सोबे देहू हे॥5॥

शब्दार्थ
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