भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धूप से कर छाँव छलनी गर्मियों की ये दुपहरी / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:26, 26 फ़रवरी 2024 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धूप से कर छाँव छलनी गर्मियों की ये दुपहरी।
पेड़ सारे कैद करती गर्मियों की ये दुपहरी।

जल रही भू, चल रही लू, सूर्य मनमानी करे अब,
देख डर से काँप जाती गर्मियों की ये दुपहरी।

सूख कर काँटा हुई है गाँव की चंचल नदी फिर,
क्यूँ उसे इतना सताती गर्मियों की ये दुपहरी।

आम का एक पेड़ अब भी राह मेरी देखता है,
याद मुझको है दिलाती गर्मियों की ये दुपहरी।

मन झुलसता, जल रहा तन, बोझ सा हो गया जीवन,
नर्क का ट्रेलर दिखाती गर्मियों की ये दुपहरी।