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निर्जनों में / प्रतिभा सक्सेना

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आज माँझी ले चलो उन निर्जनों में,
किसी पग की चाप से आगे वनों में
ले चलो उस तट बिना पहचानवाले,
जहां कोई आ नहीं पाये, पता ले.

जिस जगह, संध्या-सुबह चुपचाप आयें,
रात्रियाँ आ मौन ही फिर लौट जायें,
जहाँ कोई प्रश्न उठ पाये न आगे,
जिस जगह, बस मौन का ही राग जागे.

चलो अब कुछ काल वहीं व्यतीत कर लें
यहँ से कुछ भी बताये-बिन निकल लें
दूर इतनी यहाँ की किरणे न आयें,
यहाँ की यादें वहाँ तक जा न पायें.

पार सबको कर, चलो ऐसी दिशा में,
इन तटों से दूर हो, कुछ दिन बिताने
ले चलो उस ओर कोई द्वीप होगा,
वहाँ से आकाश बहुत समीप होगा.

चलो मेरे साथ, चाहे लौट आना,
यहँ से बस कर चलो कोई बहाना.
ले चलो उन दूरियों तक जहाँ कोई भी न जाये,
या कि उन गहराइयों में जहाँ कोई डूब जाये!