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नीति सम्मिलित दोहे 3 / मुंशी रहमान खान

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क्षमा दया सत शील ते क्रोधादिक नशि जाय।
द्यूत सुरा छल झूठ से क्रोध अधिक गरुवाय।। 1

क्रोध पाप का मूल है क्रोध ज्ञान को खाय।
क्रोध नशावै सुख जगत क्रोध नरक लै जाय।। 2

कहि कर बचन जो मेंटई झूठी देवै आश।
सो नर रौरव नरक महं रटें पियास पियास।। 3

जो मुख से भाषें बचन सत से करदें पूर।
तिनके हिय ईश्‍वर बसें न‍हीं स्‍वर्ग उन्‍हें दूर।। 4

जप तप संयम धर्म मख वस्‍त्र दान अन्‍नदान।
करहुँ रंकहित दीनहित यही स्‍वर्ग सोपान।। 5

क्षमा दया सत शील ये चार धर्म के पाँव।
इन बिनु मानुष पशु सरिस न‍हीं ईश घर ठाँव।। 6

चोरी चुगली जामनी परतिय जहर समान।
तजियो इनको दूर से सुख से रहो जहान।। 7

जहं निंदा हो धरम की अरु पर निंदक ठाट।
अस समाज विष सम तजहु लागहु अपनी बाट।। 8

अब कलिकाल के राज में धरम की नहीं बसाय।
अधम नाश हुइहें अ‍वशि धरम धरम रहिजाय।। 9

जब तक जाको बल लहै करै सकल विधि जोर।
ईश कोप जब सिर परै फिर न ठिकाना और।। 10

चंद्र सूर्य तारा अवनि चलें हुक्‍म अनुसार।
मेटें नर ईश्‍वर वचन कौन करै उद्धार।। 11

चेतहु आगम बुद्धि जन बालक और जवान।
कसहु कमर अब धर्म पर ऊँच सीख रहमान।। 12