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पचीसवीं किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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देखो, अम्बर से धरती पर
ऊषा हँसती आ रही उतर।

खुल गये क्षितिज के बन्द द्वार
निशि ने तम का पट लिया खींच,
धरती ने गूंथे सुमन-हार
नभ ने हिम से पथ दिया सींच।

तरु-तरु से स्वागत में गुंजित
विहगावलियों के मधुमय स्वर॥

मुख अरुण, भाल पर अरुण बिंदु
अरुणिम अम्बर पहिनेनव तन,
सौन्दर्य सलज, संकोच सहज
इसलिये तनिक-सा अवगुंठन।

है सरक रहा धीमे-धीमे
वह भी तम के उन केशों पर॥

स्वर्णिम आभा की कांतिमयी
किरणें कण-कण पर फूट रहीं,
कलियाँ, सुमनावलियाँ हँस-हँस
सौन्दर्य स्वर्ग का लूट रहीं॥

शशि की संगिनि यह रूप देख
मुँह छिपा रही लज्तित हो कर॥