भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पहले लगता था / फ़रीद खान

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:23, 1 जनवरी 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़रीद खान |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <poem> पहले...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पहले लगता था कि जो सरकार बनाते हैं,
वे ही चलाते हैं देश ।
पहले लगता था कि संसद में जाते हैं
हमारे ही प्रतिनिधि ।

पहले लगता था कि सबको एक जैसा अधिकार है ।

पहले लगता था कि अदालतों में होता है इंसाफ़ ।
पहले लगता था कि अख़बारों में छपता है सच ।
पहले लगता था कि कलाकार होता है स्वच्छ ।

पहले लगता था कि ईश्वर ने बनाई है दुनिया,
पाप पुण्य का होगा एक दिन हिसाब ।
पहले लगता था कि मज़हबी इंसान ईमानदार तो होता ही है ।
पहले लगता था कि सच की होगी जीत एक दिन,
केवल आवाज़ उठाने से ही सुलझ जाता है सब ।

अभी केवल इतना ही लगता है,
कि सूरज जिधर से निकलता है,
वह पूरब ही है,
और डूबता है वह पच्छिम में । बस ।