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प्रतीक्षा तेरी / ओम पुरोहित ‘कागद’

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रे जल!
सोच जरा
कितनी करती रही है
प्रतीक्षा तेरी
यह धरा।

इसके बदन पर
यह धोरे नहीं
नासूर है
जो बन गए है
प्रतीक्षा की कुंठा में
और तू है कि टंगा है
आसमान में
घुमता है चारों कूंट
गुजर जाता है कई बार
ऊपर से भी इस के
पावना बन भी
नहीं आता इसके द्वार।

तेरे पगफेरे से
दमक उठेगा
इसका बुढ़ाया दामन
उतर के तो देख
सिर्फ एक बार।