भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बढ़ि चलू... / यदुनन्दन शर्मा 'प्रलयंकर'

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:34, 19 अगस्त 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatMaithiliRachna}} <poem> जा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जागू औ मैथिल तरुण वृन्द!
देखू जगतीतत मचल द्वन्द्व,
कै रहल शत्रुदल द्वार बन्द
कहि दिऔ गाबि ई गीत छन्द-
हम नवल क्रान्ति केर सबल दूत
सुनि लिअ ने हमरासँ लागू
जागू मैथिल जागू जागू।
भूखक ज्वाला सँ जीर्ण शीर्ण,
मानव कतवा पद-दलित दीन,
जर्जर समाज असमर्थ, खीन
बस ठठरी सेहो वस्त्र-हीन,
नवयुग नभमे अरुणोदय लखि-
केवल किंचित् तन्द्रा त्यागू,
जागू मैथिल जागू जागू।
बहि रहल अनीतिक अछि बिहाड़ि,
सभ क्यो बैसल छथि हृदय हारि,
पुरजन परिजनमे अछि अरारि,
वसुधा कनैत अछि ठोहि पाड़ि
शेषक फूत्कृतिकै तरुण आइ
बढ़ि चलू अहाँ आगू आगू,
जागू मैथिल जागू जागू।