भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बथुए की पत्ती, मूंगे जैसी बाल / जगदीश गुप्त
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:49, 14 नवम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगदीश गुप्त |संग्रह= }} <Poem> पौधों में उभरा सीताओं ...)
पौधों में उभरा
सीताओं का रूप
पछुआ के झोंकों से
हिल उठती धूप
बैंगनी-सफ़ेद बूटियों की हिलकोर
पीले फूलों वाली छींट सराबोर
ओस से सनी
चिकनी मिट्टी की गंध
पाँवों की फिसलन
बन जाती निर्बन्ध
शब्द-भरी नन्हीं चिड़ियों की बौछार
लहराकर तिर जाती आँखों के पार
मेड़ के किनारे
पगडंडी के पास
अनचाहे उग आती
अजब-अजब घास
इक्का-दुक्का उस हरियाली के बीच
कुतरती गिलहरी, फिर-फिर दानें खींच
पकने में होड़ किए
गेहूँ की बाल
बथुए की पत्ती
मूंगे जैसी लाल ।
बथुए की कच्ची पत्ती हरी होती है,पर पकने पर वह एकदम लाल हो जाती है ।