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बरसा के रात / प्रदीप प्रभात

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रिमझिम-रिमझिम बरसा-बरसै।
बरसा के बुन्नी हमरा उँसै॥
परदेशोॅ मेॅ छै पाहुन याद सताबै॥
ओंसरा सेॅ भागी घरोॅ घुसौं।
बिन पिया लागै घरोॅ हवांग॥
बरसा पड़लै धरती अघैली।
पिया बीन एक हम्मी छी परती॥
बरसा रंग देखला नै कोनोॅ प्रेमी।
बरसा रंग देखला आपनोॅ ननद-ननदोसी॥
बंद करौं केबाड़ी तेॅ खिड़की सेॅ झॉकै।
कखनू छपरी के छेदोॅ सेॅ हमरा लखै॥
हे प्रेमी बरसा तोरोॅ गोड़ोॅ पड़ौं।
कखनू ओसरा तेॅ कखनू घोॅर ढुकीजाव॥
परदेशोॅ के पाहुन यादोॅ पड़ै।
झैंरी के पानी जुंगा लोरोॅ गरै॥
पिया रिम-झिम बरसा पड़ै॥
वरसा के फुहारा देहोॅ पेॅ पड़ै॥