भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहुत सुनसान दिन हैं और बहुत वीरान रातें हैं / परमानन्द शर्मा 'शरर'

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:43, 14 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=परमानन्द शर्मा 'शरर' |संग्रह= }} Category:ग़ज़ल <poem> बहु...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत सुनसान दिन हैं और बहुत वीरान रातें हैं
तुम्हारे चाहने वाले की ये मरने की बातें हैं

फ़िराक़े-यारो-फ़िक्रे-रूज़गारो-मातमे-दुनिया
अकेली जान से वाबस्ता कितनी वारदातें हैं

वही हाले-परीशाँ है वही आवारगी दिल की
तुम्हारी याद है और रात भर तारों से बातें हैं

बहार आज़ारे-जाँ<ref>जान के लिए यंत्रणा</ref>आतिश-फ़िशाँ<ref>आग उगलती रही</ref>हैं चाँद की किरनें
ये दिन भी कोई दिन हैं और ये रातें कोई रातें हैं

वो रातें वो मुलाक़ातें मुसलसल<ref>लगातार</ref> बे-पनाह बातें
‘शरर’ अब रह गई बाक़ी बस उन बातों की बातें हैं

शब्दार्थ
<references/>