भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाइस / आह्वान / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:24, 3 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़' |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वृद्ध हिमालय गरज रहा है, जागो हे भारतवासी
हिम किरीट पर फनघर यों फटकार रहा है
वीर जावानों को मानो ललकार रहा है
मानसरोवर घायल हो, रो रहा खून का आँसू
हिल-हिल कर कैलाश तेरा मानो फटकार रहा है
खाक छानती भटक रही हैं, माँ शेरावाली प्यासी

वृद्ध हिमालय गरज रहा है, जागो हे भारतवासी
दग्ध हो गई वारूदी गंधो से धरती
यमुना उबल पड़ी हैं, लोहित लाल हुई है
देखो सिंधु उवाल खा गया, वह धरती-आकाश कहाँ है
जिसके नाम इंडिया-भारत-हिन्दी-हिन्द के बासी

वृद्ध हिमालय गरज रहा है, जागो हे भारतवासी
हो गई हिमलालय की क्षृंखला अनजानी
लूट गई अस्मिता ना बचा हिन्द, ना बचा है हिन्दुस्तानी
महज एक कुर्सी के खातिर बचा न आँख में पानी
इतिहास के पन्ने-पन्ने पर रोई भारत माँ रानी
रो कर चाँद-सितारे कहते, जा सत्यानाशी
वृद्ध हिमालय गरज रहा है, जागो हे भारतवासी