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बिहारी सतसई / भाग 16 / बिहारी

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डोठि न न परत समान दुति कनकु कनक सौं गात।
भूषन कर करकस लगत परस पिछाने जात॥151॥

डीठि = दृष्टि। दुति = चमक, आभा। कनक = सोना। कर = हाथ। करकस = कठोर। परस = स्पर्श। पिछाने = पहिचाने।

एक ही प्रकार की आभा होने से (उसके) सोने के ऐसे (गोरे) शरीर में सोना (सुनहला गहना) नहीं दीख पड़ता- वह शरीर के रंग में मिल जाता है। (अतएव, सोने के) गहने हाथ में कठोर लगने से स्पर्श-द्वारा ही पहचाने जाते हैं।


करतु मलिनु आछी छबिहिं हरतु जु सहजु विकासु।
अंगरागु अंगनु लगै ज्यौं आरसी उसासु॥152॥
आछी = अच्छी। अंगराग = केसर, चंदन, कस्तूरी आदि का सौंदर्यवर्द्धक लेप। आरसी = आईना। उसास = उच्छ्वास = साँस की भाप।

जो सुन्दर शोभा को भी मलिन कर देता है, स्वाभाविक रूपविकास को भी हर लेता है। (उसके) शरीर में लगा हुआ अंगराग आईने पर पड़ी साँस भी भाप-सा (मालूम पड़ता) है।

नोट - आईने पर साँस की भाप पड़ने से जिस प्रकार उसकी ज्योति धुँधली हो जाती है, अंगराग से नायिका के शरीर की स्वाभाविक ज्योति भी उसी प्रकार मलिन हो जाती है।


अंग-अंग प्रतिबिम्ब परि दरपन सैं सब गात।
दुहरे तिहरे चौहरे भूपन जाने जान॥153॥

आईने जैसे (चमकीले) शरीर में प्रतिबिम्ब (छाया) पड़ने से (अंग-अंग के गहने) दुहरे तिहरे और चौहरे दीख पड़ते हैं-एक एक गहना दो-दो, तीन-तीन, चार-चार तक मालूम पड़ता है।


अंग-अंग छबि की लपट उपटति जाति अछेह।
खरी पातरोऊ तऊ लगै भरी-सी देह॥154॥

उपटति जाति = बढ़ती ही जाती है। अछेह = निरंतर, अबाध रूप। खरी = अत्यन्त। पातरीऊ = पतली होने पर भी।

अंग-प्रत्यंग से शोभा की लपट अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है। (अतएव) अत्यन्त पतली होने पर भी कान्ति के (अधिकाधिक उमाढ़ के कारण) उसकी देह भरी-सी (पुष्ट) जान पड़ती है।


रंच न लखियति पहिरि यौं कंचन-सैं तन बाल।
कुँभिलानैं जानी परै उर चम्पक की माल॥155॥

रंच = जरा, कुछ। उर = हृदय।

सोने के ऐसे (गोेरे) शरीरवाली (उस) बाला के हृदय पर चंपा की माला (शरीर की द्युति और चंपा की द्युति एक-सी होने के कारण) जरा भी नहीं दीख पड़ती। (हाँ) जब वह कुम्हिला जाती है, तभी दीख पड़ती है।

नोट - तुलसीदास का एक बरवै भी इसी भाव का है-

चंपक हरवा अंग मिलि अधिक सुहाइ।
जानि परै सिय हियरे जब कुम्हिलाइ॥


भूपन भारू सँभारिहै क्यौं इहिं तन सुकुमार।
सूधे पाइ न धर परै सोभा हीं कैं भार॥156॥

सुकुमार = नाजुक। सूधे = सीधे। धर = धरा, पृथ्वी।

यह सुकुमार शरीर गहनों के भार को कैसे सँभालेगा? जब सौंदर्य के भार ही से सीधे पैर पृथ्वी में नहीं पड़ते!

नोट - इस दोहे में बिहारी ने मुहाविरे का अच्छा चमत्कार दिखलाय है। ‘सीधे पैर नहीं पड़ना’ का अर्थ है ‘ऐंठकर चलना’। कोई सखी नायिका से व्यंग्यपूर्वक कहती कि बिना भूषण के ही तुम ऐंठकर चलती हो, फिर भूषण पहनने पर न मालूम क्या गजब ढाओगी? साथ ही, इसमें सुकुमारता और सुन्दरता की भी हद दिखाई गई है।


न जक धरत हरि हिय धरैं नाजुक कमला-बाल।
भजत भार भयभीत ह्व घनु चंदनु बनमाल॥157॥

जक = डर। घनु = कर्पूर।

(उसका पागलपन तो देखिये।) वह लक्ष्मी-सी सुकुमारी बाला श्रीकृष्ण को हृदय में धारण करने से तो नहीं डरती, किन्तु कर्पूर, चंदन (आदि के लेप) तथा वनमाला के बोझ से डरकर भाग जाती है (कि उनका बोझ कैसे सँभालूँगी!)

नोट - श्रीकृष्ण के विरह में व्याकुल नायिका अंगराग आदि नहीं लगाती है। इस दोहे में ‘कमला’ शब्द बहुत उपयुक्त है। कमला = जिसकी उत्पत्ति कमल से हो। इस शब्द से नायिका की अत्यंत सुकुमारता प्रकट होती है।


अरुन बरन तरुनी चरन अँगुरी अति सुकुमार।
चुवत सुरँगु रँगु सी मनौ चँपि बिछियनु कैं भार॥158॥

अरुन = लाल। बरन = वर्ण, रंग। सुरंग = लाल। चँपि = दबकर। बिछियनु = अँगुलियों में पहनने के भूषण।

उस नवयुवती के चरण लाल रंग के हैं। उसकी अँगुलियाँ अत्यन्त सुकुमार हैं (ऐसा मालूम होता है) मानो बिछुओं के बोझ से दबकर (उसकी सुकुमार अँगुलियों से) लाल रंग-सा चू रहा हो।


छाले परिबे कैं डरनि सकै न पैर छुवाइ।
झिझकति हियैं गुलाब कैं झँवा झँवैयत पाइ॥159॥

छाले = फोड़े। झँवाँ; जली हुई रुखड़ी ईंट; वह वस्तु जिससे स्त्रियाँ अपने तलवों को साफ करती हैं। झँवैयत = झाँवाँ से साफ करना।

उसके पैर इतने सुकुमार हैं कि फोड़ा पड़ जाने के डर से दासी अपने हाथ उसके पैर से छुवा ही नहीं सकती। (यहाँ तक कि) गुलाब-फूल के झवें से पैर को झँवाते समय-साफ करते समय-भी हृदय में झिझक उठती है (कि कहीं गुलाब का कोमल पुष्प भी इसके पैर में न गढ़ जाय)!

नोट - कृष्ण कवि ने इसकी टीका यों की है-

प्यारी के नाजुक पायँ निहारिकै हाथ लगावत दासी डरैं।
धोवत फूल गुलाब के लै पै तऊ झझकै मति छाले परें॥


मैं बरजी कै बार तूँ इत कति लेति करौट
पँखुरी लगैं गुलाब की परिहै गात खरौट॥160॥

बरजी = मना किया। इत = इधर। कति = क्यों। पँखुरी = पंखड़ी गुलाब के फूल की कोमल पतियाँ। खरौट = खरौंच, निछोर।

मैं कई बार मना कर चुकी। (फिर भी) तू इस ओर क्यों करवट बदलती है? (देख, इधर गुलाब की पँखुड़ियाँ बिखरी हैं।) गुलाब की पँखड़ियों के लगने से तुम्हारे शरीर में खरौंच पड़ जायँगे-शरीर छिल जायगा।