भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बे-तरह जागती हैं ग़र आँखें / कैलाश झा 'किंकर'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:08, 16 जुलाई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कैलाश झा 'किंकर' |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बे-तरह जागती हैं ग़र आँखें
झेलती नींद रात-भर आँखें।

लब पर इन्कार की ही भाषा, पर
दे रहीं प्यार की ख़बर आँखें।

मुझपे सबकी निगाह रहती हैं
और मेरी हैं आप पर आँखें।

काम भी ठीक से नहीं होता
पालती बे-वजह जो डर आँखें।

युद्ध हथियार से भले लड़िये
रखतीं दुश्मन पर तो नज़र आँखें।

आपके ग़म का है असर "किंकर"
हो गयीं आँसुओं से तर आँखें