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बेसी जरूरी छै / रूप रूप प्रतिरूप / सुमन सूरो

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समुन्दर के नीचें सप्तपाताल फोड़ी केॅ
ओकरोॅ भेद जाने लेॅ आतुर छै आदमी।
सरङोॅ के पार द्वार खोली केॅ
ओकरोॅ रूप देखै लेॅ आतुर छै आदमी।
सिरजन हार के संसार मथी केॅ
सब ‘विष’ जौरोॅ करै में बौरोॅ छै आदमी।
आखिर आदमी जाय कहाँ रहलोॅ छै?
पल-पल, घड़ी-घड़ी, तिल-तिल अपना सें दूर?
कस्तूरी मृग रं कोनो सुगंधोॅ के खोज छै ओकरा?
पता नै, यै दौड़ के अन्त कहाँ छै?
अन्त छै भी या नै, के कहतै?
लेकिन एक बात साफ छै-
आदमी खुद आपनोॅ ज्वालामुखी रची रहलोॅ छै;
कदम-कदम अग्नि-युग नगीच आबो रहलोॅ छै।
यही बास्तें-
आय वैज्ञानिक, राजनीतिक, साहित्यिक, देशभक्त
कुछ भी होय सें
बेसी जरुरी छै
आदमी के आदमी होना।