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बेाझ धान का लेकर वो जब हौले-हौले चलती है / डी. एम. मिश्र

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बेाझ धान का लेकर वो जब हौले-हौले चलती है
धान की बाली, कान की बाली दोनों सँग-सँग बजती है।

लॉग लगाये लूगे की, आँचल का फेंटा बाँधे वो
आधे वीर, आधे सिँगार रस में हिरनी-सी लगती है।

कीचड़ की पायल पहने जब चले मखमली घासों पर
छम्म-छम्म की मधुर तान नूपुर की घंटी बजती है।

किसी कली को कहाँ ख़बर होती अपनी सुंदरता की
यों तो कुछ भी नहीं मगर सपनों की रानी लगती हैं।

किसी और में बात कहाँ वो बात जो चंद्रमुखी में है
सौ-सौ दीप जलाने को वो इक तीली-सी जलती है।

खड़ी दुपहरी में भी निखरी इठलाती बलखाती वो
धूप की लाली, रूप की लाली दोनों गाल पे सजती है।