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मंतव्य / सरस दरबारी

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शायद सुन रखा था तुमने
अथाह प्रेम और अथाह घृणा के बीच
एक महीन लकीर है
बहुत प्यार करते थे ना
इसलिए मिटाना चाहा मुझे
उस एक बोतल तेज़ाब से!
लो तुम्हारी घृणा जीत गई
तुम्हारे प्रेम से –
मेरी पीड़ा से –
मेरे वर्तमान, मेरे भविष्य से!
चलो मैं अपनी ज़िद्द छोड़ती हूँ
आओ प्रेम करो मुझसे
चाहो जी भरकर!
चाह सकोगे?
मैं बदल चुकी हूँ
अपना लो मुझे
अपना सकोगे?
फिर मान लो
वह प्रेम नहीं वासना थी
तुमने केवल एक देह चाही
आत्मा तो अब भी वही है!