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मन की सुन के मनमीत चुनी / श्वेता राय

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तुम दूर बसे प्रिय हो दृग से पर अंतस में तुम ही रहते।
मनकी सुनके मनमीत चुना कर बाँह पिया तुम ही धरते।

जब नैन मिले महि आप प्रिये खिल फूल उठा मन आंगन था।
चहकी धरती लगती सगरी हिय गूँजित कोकिल कानन था॥
बहती तब सौरभ वात लिए मनमीत सुनो रसिका मन था।
हँसती निरखूं लखि रूप पिया महका लहका तन पावन था॥
तुम याद रहे सब भूल गई नित प्रीत रचूँ तुमको गहते।
तुम दूर बसे...

भर भाव हिया निरखे तब थे बरखा बन थे मुझमे सरसे।
फिर चैन हरे तुम रैन पिया, बन चंद्र प्रभा चित पे बरसे॥
चित चोर सुनो मन पीर प्रिये जब दूर रहो तन ये तरसे।
अब आन मिलो पहिचान मिले बन गीत सजो रसना हरसे॥
कहती कब बात पिया हिय की रहती हँसती चुपके सहते।
तुम दूर बसे...

अब साथ जियें अब साथ मरें मत दूर करो मुझको मन से।
बिन बोल सुने कब चैन मिले बरसे बदरा नित नैनन से॥
तज के अब मैं सब दूर खड़ी नहि मोह रहा मुझको तन से।
अनमोल कहे पिय थे मुझको मत मोल करो अब साधन से॥
कहती रजनी तुम आन मिलो जग देख रहा सपने ढहते।
तुम दूर बसे प्रिय हो दृग से पर अंतस में तुम ही रहते।
मन की सुन के मन मीत चुनी कर बाँह पिया तुम ही धरते।