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माँ / अनिता ललित

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सतरंगी ऊन के गोले जैसी...
 
नर्म, मुलायम ...प्रेम-पगी... ,
समेटे सब को , लिपटाए खुद में,
कोमल स्पर्श... सहलाती माँ!
सहनशीलता और धैर्य की...
नुकीली तेज़ सलाइयों पर...
एक-एक क़दम बढाती हुई...
सपने बच्चों के बुनती माँ!
सीधा-उल्टा , उल्टा-सीधा ...
कभी सीधा-सीधा, उल्टा-उल्टा... ,
रातों को भी जाग-जाग कर...
उँगली-कमर... कस, चलती माँ!
चुस्त हाथ... बारीक़ नज़र से...
सपनों का आकार... सजाती माँ!
गिरा फंदा उठाने ख़ातिर...
कभी उल्टे पाँव भी चलती माँ!
गाँठ जो आती ...
उधेड़ बुनाई...
नये सिरे से...
फिर सपने चढ़ाती माँ!
प्यार, दुलार ,सेवा ,ममता...
अनुशासन के हर पल्ले पर... ,
जैसे-जैसे जीवन बढ़ता ...
जोड़-घटाने करती माँ!
समय बढ़ता, बढ़ते बच्चे ,
सपनों का भी रंग निखरता!
नेह-धागे से पिरो... सँवारती...
बच्चों का तन-मन भरमाती माँ!
रहे ना कोई सपना अधूरा...
बुरी नज़र ना लगे किसी की... ,
आख़िरी टाँका चूम होठों से...
अपने दाँतों से काटती माँ!
यूँ हर पल... बढ़ते सपने उसके...
निकल हाथों से... होते साकार!
वो निहारती, वो इतराती...
बाँहों में उनको भरना चाहती...!
अफ़सोस मगर! वो भूल ही जाती...
'सपने बुनते-बुनते गुम गया...
ऊन का तो वजूद ही घुल गया...!'
रह गई बनकर एक धागा पतला...
बंद डिब्बे में... सिकुड़ा -सिमटा...!
 उत्साह... पर उसका... न हल्का होता...
निग़ाह सपनों से कभी ना हटती!
जब भी होता... कोई सपना आहत...
धागे से मलहम बन जाती...
टूटा सपना फिर-फिर ... जोड़ती...!
बिन पैबंद... बस... मुस्काती माँ!
सपनों में अपना जीवन बुन कर...
बन दुआ, सदा महकती माँ...!!!