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मुक्त / भास्कर चौधुरी

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हम छींकते हैं
पूरा ज़ोर लगाकर
 
ठठाकर हँसते हैं
रोते हैं
बच्चों की तरह
छुपकर कहीं
औरों की नज़रों से दूर
 
ठोकर खा जाते हैं
बिस्तर से उतरते हुए
या दरवाजे की चौखट पर
जो थोड़ा उठा हुआ है
जिसे हम रोजाना पार करते हैं
दसियों बार
 
हम रसोई घर में माँजते वक्त
बर्तनों को
ज़रा ज़ोर से पटक देते हैं
बास को दे देते हैं
एक ज़ोरदार गाली
ताकते हुए आजू-बाजू
सन्नाटे को मह्सूस करते हुए
 
हम तोड़ देते हैं मकड़ी के जाले को
जो घर के किसी कोने में अ‍पनी जाल बुन रही होती है
घर के किसी भी सदस्य को कोई तकलीफ दिए बिना
झाड़ू से दबाकर मार डालते हैं मकड़ी
काक्रोच को चप्पल से कुचल देते हैं
जबकि वह बेआवाज
हमसे दूर चले जाने की कोशिश कर रहा होता है पुरज़ोर
और छुछुंदर की मासूमियत को नज़रअंदाज़ कर
दूर से फेंकते हैं एक चप्पल
 
हम ऐसा करते हैं तो
दरअसल मुक्त हो रहे होते हैं
झूठ धोखा और फरेब से
डर दब्बूपन और
अनगिनत नकाबों से