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मुहब्बत का लफ़्ज़ / हरकीरत हीर

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कभी-कभी सोचती हूँ
रिश्तों के फूल काटें क्योँ बन जाते हैं
औरत को दान देते वक़्त
रब्ब क्यों क़त्ल कर देता है उसके ख़्वाब
कुछ उदास आवाज़ें
मुर्दा पेड़ों के पत्तों में दम तोड़ देती हैँ
एक गुमनाम रात झूठ के ज़ुल्म पर
चुपचाप ख़ामोश बैठी है
और ज़ेहन में उठते सवाल
विधवा के लिबास में मौन खड़े हैं

मातमी परिंदे फड़फड़ा रहे हैं
सफ़ेद चादरों में क़हक़हा लगा रही है ज़िंदगी
कुछ आधा मुर्दा ख़्वाब
रस्सियाँ तोड़ते हैं
आंसू ज़मीन पर गिरकर
खोदने लगते हैं क़ब्र

धीरे-धीरे दर्द मुस्कुराता है
अगर कुछ बदलना चाहती हो तो
अपनी इबादत का अंदाज़ बदल
तू रात की स्याही से चाँद नहीँ लिख सकती
अँधेरे की दास्तान सुब्ह की किरण लिखती है
तुम अपनी आँगन की मिटटी को बुहार कर
बो देना फिर कोई सुर्ख़ गुलाब
इन अक्षरों में मुहब्बत का लफ़्ज़
अभी मरा नहीं है