भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरे सब कुछ तुम ही स्याम! / स्वामी सनातनदेव

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:55, 26 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्वामी सनातनदेव |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग सारंग, तीन ताल 10.9.1974

मेरे सब कुछ तुम ही स्याम।
तुम बिनु मोहिं न कल एकहुँ पल, मेरे प्रानाराम॥
प्रानन के हो प्रान प्रानधन! मेरे नित विसराम।
जल बिनु मीन दीन ज्यों त्यों ही तुम बिनु मैं घनस्याम॥1॥
तुम हीसों है लगत हिये की, जगसों रह्यौ न काम।
पे तुव दरस-परस बिनु प्यारे! रहत हियो छुत-छाम<ref>भूखा-प्यासा</ref>॥2॥
आसा ही में गयी आयु सब, सर्यौ न एकहुँ काम।
कहा करों कछु समुझ न पाऊँ, तुमहि बताओ स्याम॥3॥
अपनो अपने में न लगत कछु, तुव कर दई लगाम।
फिर हूँ क्यों तुम ही कों तरसत, लगत विधाता वाम॥4॥
तुम्हरो ही हों सदा-सदा, पै लखे न ललन ललाम।
कैसे चैन होय नैननकों, लगी ललक अविराम॥5॥
अपनो तो कछु रह्यौ न बस अब, तुम जानहुँ घनस्याम।
तरसाओ वा सरसाओ, यह तकै न दूजो ठाम॥6॥

शब्दार्थ
<references/>