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मैं ढूँड लूँ अगर उस का कोई निशाँ देखूँ / सगीर मलाल

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मैं ढूँड लूँ अगर उस का कोई निशाँ देखूँ
बुलंद होता फ़ज़ा में कहीं धुआँ देखूँ

अबस है सोचनरा ला-इंतिहा के बारे में
निगाहें क्यूँ न झुका लूँ जो आसमाँ देखूँ

बहुत क़दीम है मतरूक तो नहीं लेकिन
हवा जो रेत पे लिखते हैं वो ज़बाँ देखूँ

है एक उम्र से ख़्वाहिष कि दूर जा के कहीं
मैं ख़ुद को अजनबी लोगों के दरमियाँ देखूँ

ख़याल तक न रहे राएगाँ गुज़रने का
अगर ‘मलाल’ इन आँखों को मेहरबाँ देखूँ