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मैं भूली थी अपने भ्रम से / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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मैं भूली थी अपने भ्रम से, समझे थी तुमको दूर-दूर।
पर तुम तो नित ही रहते थे मेरे समीप मन प्रेम-पूर॥
मैंने समझा-तुमने मुझको है भुला दिया, परवाह छोड़।
पर तुम तो मुझे झाँकते नित, दूसरी ओर मुँहको न मोड़॥
मैंने सोचा-तुम मन से नहिं चाहते मुझे, न करते प्यार।
अब समझी, तुम तो प्रेमभरा करते नित ही मेरा दुलार॥
मैंने देखा, तुम करते हो पद-पदपर मेरा तिरस्कार।
पर जाना अब, उसमें था पावन, मधुर, निजत्व-भरा सत्कार॥
मैं ही तो कर संदेह, तुम्हें थी मान रही अपने प्रतिकूल।
पर मेरे प्रभु! तुम तो हो मेरे प्रतिपल ही अति सानुकूल॥
टूटा भ्रम, अब मिट गयी ग्लानि, जाना स्वभाव, शुचि अन्तर्मन।
लहराने लगी हृदयमें अति आनन्द-‌ऊर्मि, रोमाचित तन॥
प्यारे प्रभु! हो तुम ही केवल निज सदृश मनोहर प्रेमरूप।
हो नहीं देखते दोष कभी जनका, मेरे प्रियतम अनूप॥