भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैंने अपना ज़मीर बेचा है / चेतन दुबे 'अनिल'
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:33, 30 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चेतन दुबे 'अनिल' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
मैंने अपना ज़मीर बेचा है
लोचनों का भी नीर बेचा है
पीर पाने को बेच दी खुशियाँ
दिल की धड़कन औ धीर बेचा है
खुद ही मैं मुफलिसी के घर पहुँचा
मैंने आला अमीर बेचा है
अब न कुछ शेष रह गया यारो
द्रोपदी का भी चीर बेचा बेचा है
पतझरों में पली जवानी है
मैंने मन - काश्मीर बेचा है