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यहाँ हर आने वाला बन के इबरत का निशाँ आया / 'वहशत' रज़ा अली कलकत्वी

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यहाँ हर आने वाला बन के इबरत का निशाँ आया
गया ज़ेर-ए-ज़मीं जो कोई ज़ेर-ए-आसमाँ आया

न हो गर्म इस क़दर ऐ शम्मा इस में तेरा क्या बिगड़ा
अगर जलने को इक परवाना-ए-आतिश-ब-जाँ आया

ख़ुदा जाने मिला क्या मुझ को जा कर उन की महफ़िल में
के बा-सद ना-मुरादी भी वहाँ से शादमाँ आया

जमाया रंग अपना मैं ने मिट कर तेरे कूचे में
यक़ीन-ए-इश्क़ मेरा अब तो तुझ को बद-गुमाँ आया

न हो आज़ुर्दा तू आज़ुर्दगी का कौन मौक़ा है
अगर महफ़िल में तेरी वहशत-ए-आज़ुर्दा-जाँ आया