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ये लम्हा ज़ीस्त का बस आख़िरी है और मैं हूँ / कृष्ण बिहारी 'नूर'

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ये लम्हा ज़ीस्त का बस आख़िरी है और मैं हूं
हर एक सम्त से अब वापसी है और मैं हूं

हयात जैसे ठहर सी गयी हो ये ही नहीं
तमाम बीती हुई ज़िन्दगी है और मैं हूं

मिरे वुजूद को अपने में जज़्ब करती हुई
नई-नई सी कोई रौशनी है और मैं हूं

मुक़ाबिल अपने कोई है ज़ुरूर कौन है वो
बिसाते-दहर है, बाज़ी बिछी है और मैं हूं

अकेला इश्क़ है हिज्रो-विसाल कुछ भी नहीं
बस एक आलमे-दीवानगी है और मैं हूं

किसी मक़ाम पे रुकने को जी नहीं करता
अजीब प्यास, अजब तिश्नगी है और मैं हूं

जहां न सुख का हो अहसास और न दुख की कसक
उसी मक़ाम पे अब शायरी है और मैं हूं