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रामकली / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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15.

जग में कायथ जाति हमारी।टेक।
पाओँ माला तिलक दोशाला, परमारथ औहदारी॥
कागज जँह लगि कर्म कमाओँ, कैंची ज्ञान सुधारी। गुरु के शब्द अंदजा पकरयो, अनुभव वरक उतारी॥
मन मसिहान साँचको स्याही, सुरति सोफ भरि डारी। मर्म काठ करि कल्म छुरी छवि तकि तृष्णा कतमार॥
तबलक तत्व दयाको दफतर, संत कचहरी भारी। रैयत जग शब्दके कोरा, दूजा मार न मारी॥
राम रतन को खरो खजानो, धरो सो हृदय कोठारी। है कोइ परिखनहार विवेकी, बारंबार पुकारी॥
धरनी साल बसाल आमिली, जमा खरच यहिपारी। प्रभु अपने कर कागज मेरो, लीजै समुझि सुधारी॥1॥

16.

मन तू या विधि करु कैथाई।टेक।
सुख सम्पति कबहूँ नहि छीजै, दिन दिन बढ़त सवाई॥
कस्बा काया करु ओहदारी, चित चिट्ठा धरु साधी। मनुआ मोतखम करिले अस्थिर, मूलमंत्र अवराधी॥
ततको तिरज विरज वुद्धीकरु, ध्यान निरख ठहराई। हृदय हिसाब बूझि कर कीजै, दहियक देहु लगाई॥
रामको नाम रटो निशि वास, मुक्ति सु-फर्द बनाई। अजपा जाप वारजा करिले, सर्वकर्म विलगाई॥
रैयत पाँच पचीस बुझीओ, हरि हाकिम रह राजी। धरनी जमाखर्च विधि मिलिहै, कोकरि सकै गमाजी॥2॥

17.

वन्दे तब तेरी मुसमानी।टेक।
सुन्नत सहज दर्द की दाढ़ी, वस्तु न छुवै विरानी॥
नीयत सफा नमाज निरंतर, तलबकि तस्बी होई। रोजा रोज दया जीवनपर, हज हजात ना होई॥
महल-वज्द मौजूद खसम है, दिल महरम है भाई। चार पीर मुर्शिद जाहीके, तासाँ करु अशनाई॥
जबह कराले पाँच जानवर, दीजै पीर-कँदूरी। धरनी साँच सखुन कहु कल्मा, होय बहिश्त हजुरी॥3॥

18.

भाई जीभ कहल ना जाई॥टेक॥
राम-भजनमें करत निठुरई, कूदि चलै कुचुराई॥
चरन न चलै सुपंथ धर्म मगु, अपथ चले अतुराई। देनवाहि लखिदीन द्वारो, लेत करै हथियाई॥
नयना रूप सरूप सनेही, नाद श्रवन लुवुधाई। नासा चहै वास विषयनकी, इन्द्रिय नारि पराई॥
सन्त-चरन को शीश नवै नहि, ऊपर अधिक नरनाई। मन पशु घेरि वेरि वहुबाँधी, भागै छाँद तुराई॥
कासाँ कहाँ कहे को माने, अंग अंग अघ छाई। धरनी दया-संत पूजै जब, तब हरि होत सहाई॥4॥