भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लीची के गुच्छे मन भाए! / रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:51, 24 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ }} {{KKCatBaalKavita}} <poem> हरी, लाल …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हरी, लाल और पीली-पीली!
बिकती लीची बहुत रसीली!!

गुच्छा प्राची के मन भाया!
उसने उसको झट कब्ज़ाया!!

लीची को पकड़ा, दिखलाया!
भइया को उसने ललचाया!!

प्रांजल के भी मन में आया!
सोचा इसको जाए खाया!!

गरमी का मौसम आया है!
लीची के गुच्छे लाया है!!

दोनों ने गुच्छे लहराए!
लीची के गुच्छे मन भाए!!