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वक़्त की बात / माधवी शर्मा गुलेरी

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सपनीली सुबह
उनींदी-सी होती है
तो कभी
चटख़ मुस्तैद भी

दोपहरी धूप
देह पर दमके काँसे-सी
तो कभी
सिकोड़ देती है पोर-पोर भी

ढलती साँझ
लगे रूमानी बेहिसाब
तो कभी
बेमानी-सी भी

स्याह रात
गुज़रे नीम-बेहोशी में
तो कभी
लगाए फिरती है गश्त भी
...
...
आसमाँ एक है हर पल
बदल जाती हैं बस
खिड़कियाँ ही ।