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विजयी वही, स्वतन्त्र वही है / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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(राग शिवरञ्जनी-ताल कहरवा)
 
विजयी वही, स्वतन्त्र वही है, वही यथार्थ वीर, बलवान।
मन-‌इन्द्रिय जिसके वश रह शुचि करते नित सत्कर्म महान॥
काम-क्रोध, लोभ-मद, ममता-राग, मोह-मैंपन-सब दोष।
बनते परम पवित्र सुलक्षण, साधन, भक्ति-रत्नके कोष॥
रहता ‘काम’ नित्य प्रभु-पद-रत, नित्य बढ़ाता सेवा-भाव।
‘क्रोध’ न पडऩे देता रञ्चक अशुचि विचारोंका कुछ दाव॥
भजन-विरोधी वृत्तिमात्रका करता वह तत्क्षण संहार।
‘लोभ’ नित्य बढ़ता रहता प्रभुकी सुमधुर स्मृतिका सुख-सार॥
प्रभुके प्रेमासवका शुचि ‘मद’ नित छाया रहता सब अंग।
‘ममता’ पूर्ण एक प्रभुमें ही नित्य अचल हो रही, अभन्ग॥
प्रभुका मधुर मनोहर पावन दिव्य परम सौन्दर्य ललाम।
एकमात्र है ‘राग’ उसीमें आत्यन्तिक अनुपम अविराम॥
‘मोह’ अनन्य नित्य मोहनके रस-चरित्र सुननेमें लीन।
‘मैंपन’ बना एकमात्र प्रभु-पद-रज-कणका सेवक दीन॥
‘नेत्र’ देखते सदा श्यामको अग-जगमें प्रकटित सर्वत्र।
‘कान’ सदा सुनते मुरली-रव कलित, ललित लीला-सुचरित्र॥
अंग-‌अंग पाते नित उनका सच्चिन्मय श्री‌अंग-स्पर्श।
श्रीवपु दिव्य-हार-सौरभसे ‘नासा’ नित पाती अति हर्ष॥
‘रसना’ नित पाती प्रसाद-रस, रहती परमानन्द-निमग्र।
‘कर पद-जिह्वा’ निज कार्योंसे रहते नित सेवा-संलग्र॥
इस प्रकार जो मन-‌इन्द्रिय-शरीरको कर निज वशमें शूर।
प्रभु-सेवामें कर नियुक्त, रखता है, वह विजयी भरपूर॥