भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विस्मृति / सुभाष काक

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:39, 14 नवम्बर 2013 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्‍योंकि विस्‍मृत हैं हम,
नया जन्‍म नहीं
हो सकता हमारा।
बंधे हैं हम
अतीत में,
अन्‍धे समान।

चिह्‍नप्राप्‍ति
जीवन का लक्ष्‍य
एकमात्र --
भक्‍ति,
याचना,
योग।
आतुरता,
पूर्ण होकर पीडा की,
मधु को चखकर
विष पीने की।

काल की
सूजन दी देखी है
हमने अभी,
अतीत भविष्य को
गर्भे समेटे,
प्रस्फुटित
हुआ नहीं।

इसका जन्म
मायावी होगा
इसका शोषण है
स्‍मृतिधारा
ऊर्जा है
स्वरों की झंकार।

पर यह यायावर मन
इन्द्रजाल की
भूलभुलैया में
भटक गया
विस्मृति की प्रतिगूंज
सुनकर
सम्मोहित।