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शहर के अंधियारे विस्तार के पीछे / अलेक्सान्दर ब्लोक / वरयाम सिंह
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शहर के अंधियारे विस्तार के पीछे
खो गई थी सफेद बर्फ
अंधकार से हो गई थी मित्रता
धीमे हो गए थे मेरे कदम।
काले शिखरों पर
गड़गड़ाहट लाई थी बर्फ
उठ रहा था एक आदमी
अंधकार में से मेरी तरफ।
छिपाता मुझसे अपना चेहरा
निकल गया वह तेजी से आगे
उधर जहाँ खत्म हो चुकी थी बर्फ
जहाँ बची नहीं थी आग।
वह मुड़ा -
दिखी जलती हुई एक आँख मुझे।
बुझ गई उसकी आग
ओझल हो गया बर्फ से घिरा जल।
मिट गया पाले का छल्ला
जल के शांत प्रवाह में।
लज्जा की लाली छाई कोमल चेहरे पर
और आह भरी ठंडी बर्फ ने।
मुझे मालूम नहीं - कब और कहाँ
प्रगट हुआ और छिप गया -
किस तरह गिर पड़ा पानी में
वह नीला सपना आकाश का।