भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शहर मेरा / हरीश बी० शर्मा

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:16, 19 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरीश बी० शर्मा |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <Poem> '''पहला''' हॉर्न...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पहला

हॉर्न होते हैं संक्रामक
बजते ही जाते हैं
मेरा शहर, जहाँ नहीं है वन-वे
जाने क्यों फिर भी
लोग नहीं टकराते हैं
तुम कह सकते हो सहिष्णु हैं
टकराकर भी कहते हैं- जाने भी दो यार!

या के इतने हो गए हैं ढीठ
जानते हैं, होना क्या है
ये शहर ऐसे ही चलेगा
किस-किस से करेंगे तकरार


दूजा


मुझे लगता है
सुकून-सिर्फ आर०ओ०बी० पर मिलेगा
सबसे ऊँची जगह
दिखती है सिर्फ दौड़ती गाड़ियाँ

मैं रुकता हूँ
रात कुछ बाक़ी
कुछ कोल्ड... कुछ ड्रिंक्स
सब कुछ अपने मन जैसा

अचानक, कोई पुकारता है
हरीश!
मैं झल्लाता हूं...
यार! ये शहर इतना छोटा क्यों है


तीजा


उन्हें चाहिए कान्वेंट की कविता
और मैं मारजा की दी ईंट को
हाथ पर रखे
घोटता पाटी
जूझता हूँ कविता से

कवायद कविता की नहीं
चाहत, अंतर पाटने की है
इस कोर्ट मैरिज में
मैं कहीं सुन ही नहीं पाता
अंतरपट दो खोल