भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सबकी आँखो का मर गया पानी / विजय वाते
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:33, 29 जून 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय वाते |संग्रह= दो मिसरे / विजय वाते }} सबकी आँखो का मर...)
सबकी आँखो का मर गया पानी|
फ़िर भी आँसू से डर गया पानी|
धुप समझते थे, चांदनी समझे,
वक्त गुज़रा उतर गया पानी|
कोई नश्तर चला था पानी पर,
क़तरा-क़तरा बिखर गया पानी|
ज़लज़ले, आग, हादसे, आँसू,
अब तो सर से गुज़र गया पानी|
ये समय की रंगों में बहता है,
हड्डियाँ नर्म कर गया पानी|