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सागर-तट / शमशेर बहादुर सिंह

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यह समन्दर की पछाड़
          तोड़ती है हाड़ तट का -
          अति कठोर पहाड़।
 
पी गया हूँ दृश्‍य वर्षा का :
हर्ष बादल का
हृदय में भर कर हुआ हूँ हवा-सा हलका।

धुन रही थीं सर
व्‍यर्थ व्‍याकुल मत्त लहरें
वहीं आ-आकर
जहाँ था मैं खड़ा
मौन;
समय के आघात से पोली, खड़ी दीवारें
जिस तरह घहरें
एक के बाद एक, सहसा।

चाँदनी की उँगलियाँ चंचल
क्रोशिये से बुन रही थीं चपल
फेन-झालर बेल, मानो।
पंक्तियों में टूटती-गिरती
चाँदनी में लोटती लहरें
बिजलियों-सी कौंदती लहरें
मछलियों-सी बिछल पड़तीं तड़पती लहरें
बार-बार।
 
स्‍वप्‍न में रौंदी हुई-सी विकल सिकता
पु‍तलियों-सी मूँद लेती
आँख।

         यह समन्दर की पछाड़
          तोड़ती है हाड़ तट का --
          अति कठोर पहाड़।
          यह समन्दर की पछाड़
[1945]