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सूर्य नक्षत्र नारी / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

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तुमसे सदा विदाई की ही बात कही।

शुरू से, जानता हूँ मैं
उस दिन भी तुम्हारा मुख नहीं पहचाना
मुझे बताया भी नहीं किसी ने-
तुम पृथ्वी में हो
कहीं पानी को घेरे पृथ्वी में अथाह पानी की तरह
रह गयी हो तुम।
यही सोचकर चल रहा था
अपने सिर पर सवार स्फीत सूर्य को लोग पहचानते हैं
आकाश के अप्रतिम नक्षत्र को पहचानेगा कौन कि यह किस निर्झर का है?
तब भी तुम जीवन को छू गयी-
मेरी आँख से निमेष निहत
सूर्य को हटाकर।

हट जाता, पर आयु के दिन बीतने से पहले
नव-नव सूर्य को किन नारियों के बदले
छोड़ देता है? कौन देगा? सारे दृश्य उत्सव
से बड़े
स्थिरतर प्रिय तुम, निःसूर्य निर्जन
कर देने आये।
मिलन और विदाई के प्रयोजन से मैं अगर शामिल होता
तो तुम्हारे उत्सव में
मैं अन्य सारे प्रेमियों की तरह
विराट पृथ्वी और सुविशाल समय की सेवा में,
आत्मस्त हो जाता।

ये तुम नहीं जानती, पर, मैं जानता हूँ, एक बार तुम्हें देखा है
पीछे पटभूमि में, समय का
शेषनाग था, नहीं-विज्ञान के क्लान्त नक्षत्रगण
बुझ गये-मनुष्य अपरिज्ञात हो गया अन्धकार में
तब भी उनके बीच से
ऐ गंभीर मानुषी, क्यों तू खुद की पहचान कराती है?
आहा, उसे अनन्त अंधकार की तरह जानकर मैं, फिर
अल्पायु रंगीन धूप में मानव के इतिहास में जाने कहाँ जा रहा हूँ?

दो

चारों ओर सृजनों का अन्धकार रह गया है, नारी
अवतीर्ण शरीर की अनुभूति छोड़ उससे अच्छा
कहीं ऐसा सूर्य नहीं है जो जलने पर
तुम्हारी देह आलोकित करके सब स्पष्ट कर दे किसी भी काल में-
एक शरीर जलने पर होता है जितना।

इस समस्त अत्याचारी समय को तोड़कर
नया समय गढ़ा तुमने, स्वयं को नहीं गढ़ा, पर तब भी तुमने
ब्रह्मांड के अन्धकार में एक बार जन्मने का अनुभव किया था-
जन्म-जन्मान्तर की मरण-स्मरण की पुलिया
तुम्हारा हृदय स्पर्श करके कहती है आज
उसी का संकेत कर गयी-
अपार काल का óोत नहीं मिलने पर किस तरह से, नारी,
तुच्छ खण्ड, थोड़े समय का स्वत्व बिता कर अऋणी तुम्हें पास पायेगा
तुम्हारे निबिड़ निज आँख आकर अपना विषय ले जायेंगे?
समय के कक्ष से दूर कक्ष की चाबी
खोलकर तुम दूसरी लड़कियों की
आत्म-अंतरंगता का दान
दिखाकर अनन्त काल टूट जाता है बाद में,
जिस देश में नक्षत्र नहीं-कहीं समय नहीं और
मेरे हृदय में नहीं विभा-
दिखाओगी निज हाथ से-अवशेष में-कैसे मकर के घर की प्रतिमा।

तीन

तुम हो, यह जानकर अन्धकार ही अच्छा है मैंने जो अतीत और
शीत क्लांतिहीन बिताया था
केवल वही बिताया है।
बिताकर जाना, यही है शून्य, पर हृदय के पास रहा एक कोई और नाम।
अन्तहीन इन्तज़ार से तब भी अच्छा है-
अतीत के द्वीप पर लक्ष्य रखकर अविराम चलते जाना
शोक को स्वीकार कर अवशेष में
मिटते शरीर की उज्ज्वलता में अनन्त का ज्ञान पाप मिटा देना।

आज इस ध्वंसरत, अन्धकार को भेद कर विद्युत की तरह
तुम जो शरीर लिए रह गयी हो वही बात समय के मन में
बताने का आधार क्या एक पुरुष के निर्जन शरीर में
केवल एक पलक-हृदयविहीन और सब अपार आलोक वर्ष घिरे
अद्यः पतित इस असमय में कौन-सा वही उपचार पुरुष मानुष?
सोचता हूँ मैं-जनता हूँ मैं, फिर भी
वह बात मुझे बताने का
हृदय नहीं है मेरे पास-
जो कोई प्रेमी आज अभी मेरे
देह का प्रतिभू होकर अपनी नारी को लेकर पृथ्वी पथ पर
एक क्षण के लिए यदि-मेरा अनन्त हो जाए महिला के ज्योतिष जगत में।