भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमें भी पता है शहर जल रहा है / डी. एम. मिश्र

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:02, 16 नवम्बर 2020 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमें भी पता है शहर जल रहा है
जो बोया ज़हर था वो अब फल रहा है

हमारी बदौलत मिली उसको कुर्सी
पलटकर वही अब हमें छल रहा है

अगर साँप है तो कहीं और जाये
मेरे आस्तीं में वो क्यों पल रहा है

हज़ारों लुटेरे सदन में हैं बैठे
क्यों बदनाम चम्बल का जंगल रहा है

ग़मों की न बदली कभी सर पे छायी
सहारा मेरी माँ का आँचल रहा है

जिसे आप मिट्टी का बरतन समझते
वही तो कुम्हारों का सम्बल रहा है

कभी ऐसा पहले न देखा सुना था
सियासत का जो दौर अब चल रहा है