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हरिगीता / अध्याय १ / दीनानाथ भार्गव 'दिनेश'

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राजा धृतराष्ट्र ने कहा:

रण- लालसा से धर्म-भू, कुरुक्षेत्र में एकत्र हो।
मेरे सुतों ने, पाण्डवों ने क्या किया संजय कहो॥१॥

संजय ने कहा:

तब देखकर पाण्डव-कटक को व्यूह- रचना साज से।
इस भाँति दुर्योधन वचन कहने लगे गुरुराज से॥२॥

आचार्य महती सैन्य सारी, पाण्डवों की देखिये।
तव शिष्य बुधवर द्रुपद- सुत ने दल सभी व्यूहित किये॥३॥

भट भीम अर्जुन से अनेकों शूर श्रेष्ठ धनुर्धरे।
सात्यिक द्रुपद योद्धा विराट महारथी रणबांकुरे॥४॥

काशी नृपति भट धृष्टकेतु व चेकितान नरेश हैं।
श्री कुन्तिभोज महान पुरुजित शैब्य वीर विशेष हैं॥५॥

श्री उत्तमौजा युधामन्यु, पराक्रमी वरवीर हैं।
सौभद्र, सारे द्रौपदेय, महारथी रणधीर हैं॥६॥

द्विजराज! जो अपने कटक के श्रेष्ठ सेनापति सभी।
सुन लीजिये मैं नाम उनके भी सुनाता हूँ अभी॥७॥

हैं आप फिर श्रीभीष्म, कर्ण, अजेय कृप रणधीर हैं।
भूरिश्रवा गुरुपुत्र और विकर्ण से बलवीर हैं॥८॥

रण साज सारे निपुण शूर अनेक ऐसे बल भरे।
मेरे लिये तय्यार हैं, जीवन हथेली पर धरे॥९॥

श्री भीष्म- रक्षित है नहीं, पर्याप्त अपना दल बड़ा।
पर भीम- रक्षा में उधर, पर्याप्त उनका दल खड़ा॥१०॥

इस हेतु निज- निज मोरचों पर, वीर पूरा बल धरें।
सब ओर चारों छोर से, रक्षा पितामह की करें॥११॥

कुरुकुल- पितामह तब नृपति- मन मोद से भरने लगे।
कर विकट गर्जन सिंह- सी, निज शङ्ख- ध्वनि करने लगे॥१२॥

फिर शंख भेरी ढोल आनक गोमुखे चहुँ ओर से।
सब युद्ध बाजे एक दम बजने लगे ध्वनि घोर से॥१३॥

तब कृष्ण अर्जुन श्वेत घोड़ों से सजे रथ पर चढ़े।
निज दिव्य शंखों को बजाते वीरवर आगे बढ़े॥१४॥

श्रीकृष्ण अर्जुन ' पाञ्चजन्य' व ' देवदत्त' गुंजा उठे।
फिर भीमकर्मा भीम ' पौण्ड्र' निनाद करने में जुटे॥१५॥

करने लगे ध्वनि नृप युधिष्ठिर, निज ' अनन्तविजय' लिये।
गुंजित नकुल सहदेव ने सु- ' सुघोष' ' मणिपुष्पक' किये॥१६॥

काशीनरेश विशाल धनुधारी, शिखण्डी वीर भी।
भट धृष्टद्युम्न, विराट, सात्यकि, श्रेष्ठ योधागण सभी। १। १७॥

सब द्रौपदी के सुत, द्रुपद, सौभद्र बल भरने लगे।
चहुँ ओर राजन्! वीर निज- निज शङ्ख- ध्वनि करने लगे॥१८॥

वह घोर शब्द विदीर्ण सब कौरव- हृदय करने लगा।
चहुँ ओर गूंज वसुन्धरा आकाश में भरने लगा॥१९॥

सब कौरवों को देख रण का साज सब पूरा किये।
शस्त्रादि चलने के समय अर्जुन कपिध्वज धनु लिये॥२०॥

श्रीकृष्ण से कहने लगे आगे बढ़ा रथ लीजिये।
दोनों दलों के बीच में अच्युत! खड़ा कर दीजिये॥२१॥

करलूं निरीक्षण युद्ध में जो जो जुड़े रणधीर हैं।
इस युद्ध में माधव! मुझे जिन पर चलने तीर हैं॥२२॥

मैं देख लूं रण हेतु जो आये यहाँ बलवान् हैं।
जो चाहते दुर्बुद्धि दुर्योधन- कुमति- कल्याण हैं॥२३॥

संजय ने कहा:

श्रीकृष्ण ने जब गुडाकेश- विचार, भारत! सुन लिया।
दोनों दलों के बीच में जाकर खड़ा रथ को किया॥२४॥

राजा, रथी, श्रीभीष्म, द्रोणाचार्य के जा सामने।
लो देखलो! कौरव कटक, अर्जुन! कहा भगवान् ने॥२५॥

तब पार्थ ने देखा वहाँ, सब हैं स्वजन बूढ़े बड़े।
आचार्य भाई पुत्र मामा, पौत्र प्रियजन हैं खड़े॥२६॥

स्नेही ससुर देखे खड़े, कौन्तेय ने देखा जहाँ।
दोनों दलों में देखकर, प्रिय बन्धु बान्धव हो वहाँ॥२७॥

कहने लगे इस भाँति तब, होकर कृपायुत खिन्न से।
हे कृष्ण! रण में देखकर, एकत्र मित्र अभिन्न- से॥२८॥

होते शिथिल हैं अङ्ग सारे, सूख मेरा मुख रहा।
तन काँपता थर-थर तथा रोमाञ्च होता है महा॥२९॥

गाण्डीव गिरता हाथ से, जलता समस्त शरीर है।
मैं रह नहीं पाता खड़ा, मन भ्रमित और अधीर है॥३०॥

केशव! सभी विपरीत लक्षण दिख रहे, मन म्लान है।
रण में स्वजन सब मारकर, दिखता नहीं कल्याण है॥३१॥

इच्छा नहीं जय राज्य की है, व्यर्थ ही सुख भोग है।
गोविन्द! जीवन राज्य- सुख का क्या हमें उपयोग है॥३२॥

जिनके लिये सुख- भोग सम्पति राज्य की इच्छा रही।
लड़ने खड़े हैं आश तज धन और जीवन की वही॥३३॥

आचार्यगण, मामा, पितामह, सुत, सभी बूड़े बड़े।
साले, ससुर, स्नेही, सभी प्रिय पौत्र सम्बन्धी खड़े॥३४॥

क्या भूमि, मधुसूदन! मिले त्रैलोक्य का यदि राज्य भी।
वे मारलें पर शस्त्र मैं उन पर न छोड़ूँगा कभी॥३५॥

इनको जनार्दन मारकर होगा हमें संताप ही।
हैं आततायी मारने से पर लगेगा पाप ही॥३६॥

माधव! उचित वध है न इनका बन्धु हैं अपने सभी।
निज बन्धुओं को मारकर क्या हम सुखी होंगे कभी॥३७॥

मति मन्द उनकी लोभ से, दिखता न उनको आप है।
कुल- नाश से क्या दोष, प्रिय-जन-द्रोह से क्या पाप है॥३८॥

कुल- नाश दोषों का जनार्दन! जब हमें सब ज्ञान है।
फिर क्यों न ऐसे पाप से बचना भला भगवान है॥३९॥

कुल नष्ट होते भ्रष्ट होता कुल- सनातन- धर्म है।
जब धर्म जाता आ दबाता पाप और अधर्म है॥४०॥

जब वृद्धि होती पाप की कुल की बिगड़ती नारियाँ।
हे कृष्ण! फलती फूलती तब वर्णसंकर क्यारियाँ॥४१॥

कुलघातकी को और कुल को ये गिराते पाप में।
होता न तर्पण पिण्ड यों पड़ते पितर संताप में॥४२॥

कुलघातकों के वर्णसंकर- कारकी इस पाप से।
सारे सनातन, जाति, कुल के धर्म मिटते आप से॥४३॥

इस भाँति से कुल- धर्म जिनके कृष्ण होते भ्रष्ट हैं।
कहते सुना है वे सदा पाते नरक में कष्ट हैं॥४४॥

हम राज्य सुख के लोभ से हा! पाप यह निश्चय किये।
उद्यत हुए सम्बन्धियों के प्राण लेने के लिये॥४५॥

यह ठीक हो यदि शस्त्र ले मारें मुझे कौरव सभी।
निःशस्त्र हो मैं छोड़ दूँ करना सभी प्रतिकार भी॥४६॥

संजय ने कहा:

रणभूमि में इस भाँति कहकर पार्थ धनु- शर छोड़के।
अति शोक से व्याकुल हुए बैठे वहीँ मुख मोड़के॥४७॥