भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हवा खराब है / शैलजा सक्सेना

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:53, 5 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शैलजा सक्सेना |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शहर की हवा,
गंधाती है धूल से, मसालों से, मिठाइयों से, गरीबी से..!

चीखती है हज़ारों आवाज़ों में..
ठेलों की, भिखामंगों की, बाबुओं की,
कार, रिक्शा, सायकिल, मंदिर, मस्ज़िद, गुरुद्वारे के भोंपुओं में।

सब होड़ में हैं कि
हवाओं पर किसका अधिकार हो सब से ज़्यादा!

हवा,
घबरा कर छुप जाना चाहती है जंगलों में,
पर…. वे तो कट चुके हैं!

हवा,
घबरा कर छुप जाना चाहती है पहाड़ों और हवेलियों के पीछे,
पर….. वे तो ढ़ह चुके है!

बौराई सी घूमती है हवा आसरे को
पर कट-फट कर रह जाती है हज़ारों आवाज़ों में!
गंधा कर रह जाती है
अनचाही गंधों में..!

और आदमी कहता है
“हवा खराब है आजकल की”॥