भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अंतिम इच्छा / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल
Kavita Kosh से
रहूँ चाहे मुर्ग मुसल्लम
या बटर चिकन
बना डाले चाहे कोई सूप
हर कोई
घोट देना चाहता है गला
सुबह की बाँग का
ताकि सोता रहे
सूर्याेदय के बाद तक
खाने में परहेज नहीं
पर गाने से परहेज
रहते हैं लौह जंगलों में
वहीं खाना-दाना
वहीं जगल-पानी
रहना पड़े अगर मनुष्य को
चार दिन भी ऐसे
काट दे गर्दन
जरा-सी कोई
तौले दोनों बाँहों से
हवा में उठाकर
तब देखो कैसे
सूअर से ज्यादा चिल्लायेगा
हो गये हैं तंग
वाहनों का धुआँ खा-खाकर
सड़क किनारे
नुमाइश लगवाकर
बर्दाश्त नहीं होता
ये सब
चहत है यही
जल्द-से-जल्द
हमें कोई खा ले।