भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अंधकार ये कैसा छाया / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अंधकार ये कैसा छाया

सूरज भी रह गया सहमकर ।

सिंहासन पर रावण बैठा

फिर से राम चले वन पथ पर ।

लोग कपट के महलों में रह

सारी उमर बिता देते हैं ।

शिकन नहीं आती माथे पर

छाती और फुला लेते हैं ।

कौर लूटते हैं भूखों का

फिर भी चलते हैं इतराकर ।।

दरबारों में हाजि़र होकर

गीत नहीं हम गाने वाले ।

चरण चूमना नहीं है आदत

ना हम शीश झुकाने वाले ।

मेहनत की सूखी रोटी भी

हमने खाई थी गा ­गाकर ।।

दया नहीं है जिनके मन में

उनसे अपना जुड़े न नाता ।

चाहे सेठ मुनि ­ज्ञानी हो

फूटी आँख न हमें सुहाता ।

ठोकर खाकर गिरते पड़ते

पथ पर बढ़ते रहे सँभलकर।।