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अंधेरे के सामने / प्रताप सहगल
Kavita Kosh से
मेरे सामने अंधेरे की दीवार थी
मैं उसे गिरा सकता था
फलांग भी सकता था उसे।
मेरे सामने अंधेरे की खाई थी
मैं उसे पाट सकता था
छलांग भी सकता था उसे।
मेरे सामने अंधेरे की चट्टान थी
मैं उसे तोड़ सकता था
हटा भी सकता था उसे।
पर हुआ यह
मैंने दीवार को न गिराया
न फलांगा
एक छोटी-सी सेंध लगाकर
ढूंढता रहा प्रकाश का समुद्र।
अंधेरे की खाई को भी पाटा नहीं
न ही छलांगा
बस देखता रहा अंधेरे से भरी खाई
फेंकता रहा उसमें
अपने हताशा के रस्से।
न ही तोड़ी मैंने अंधेरे की चट्टान
न उसे हटाया
बस एक तरफ से निकल गया
देखो! अंधेरा कितना गहरा गया है।