भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अकेला तू तभी / वीरेन डंगवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तू तभी अकेला है जो बात न ये समझे

हैं लोग करोडों इसी देश में तुझ जैसे



धरती मिट्टी का ढेर नहीं है अबे गधे

दाना पानी देती है वह कल्याणी है

गुटरू-गूँ कबूतरों की, नारियल का जल

पहिये की गति, कपास के ह्रदय का पानी है



तू यही सोचना शुरू करे तो बात बने

पीडा की कठिन अर्गला को तोडें कैसे!