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अन्तर्दाह / पृष्ठ 35 / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'

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जल भरे बड़े छालों पर
आओ संतोष मुझे है
फूटेंगे, चीख बढ़ेगी
पर, इसका दोष तुझे है ।।१७१।।

अन्तस्तल के छालों का
अब पीव अश्रु बन गिरता
निःश्वास पवन के कारण
इन आँखों में घन घिरता ।।१७२।।

ओ नील गगन !अब तुम भी
मेघों में चाँद छिपाकर
रोओ मेरे हे संगी !
वर्षा मिस अश्रु गिराकर ।।१७३।।

वह हँसी और मधु-मदिरा
इन अधरों पर आने दो
जीवन की शरद समा पर
फिर से बसंत छाने दो ।।१७४।।

सुख-स्वाति-बूँद-सी बरसो
मेरे सूखे जीवन में
जग-प्रेम बने मुक्तामणि
मेरे सीपी - से मन में ।।१७५।।