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अपना जीवन / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा

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अपना जीवन
एक बोझ लिए सोती हूँ
एक बोझ लिए जगती हूँ
एक बोझ लिए जन्मी थी
एक बोझ लिए मरती हूँ

यह बोझ जगह बदलता है
कभी दिल पर कभी दिमाग पर
कभी तन पर तो कभी मन पर
सदियों से ढो रही हूँ यह बोझ
अब तो उतरे यह बोझ
कि मैं भी खुलकर बोलूँ
कि मैं भी लिखूँ खुलकर
कि मैं भी गाऊँ
मैं भी उड़ सकूँ कल्पनाओं के अन्तहीन आकाश में
कि मैं भी बहूँ हवा की तरह खुलकर
खड़ी भी रहूँ तो पेड़ की तरह
फैलूँ भी तो खुशबू की तरह
खिलूँ तो फूल की तरह
किन्तु सदियों से पड़ा यह बोझ
तन-मन पर से हटे तो
मैं खुलकर हँसती हूँ
तो कोई मेरे कान में धीरे से कह जाता है
'तू ज़ोर से रो सकती है खूब रो
पर तू हँस मत’
यह 'कोई’ अब तो मरे कि मैं जीऊँ
जैसे जीता है बालक
अपना जीवन
अब तो मैं भी जीऊँ