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अपना ही मुँह रही खरोंच / रामकुमार कृषक
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अपना ही मुँह रही खरोंच
नाख़ूनी सभ्यता खड़ी !
संकुल–सा पन्थ
प्राण का
विस्तारित तंत्र घ्राण का
चाहती सुगन्ध सुंघनी
दुर्गन्धित पंक में पड़ी !
अन्तरिक्ष नाप
बाँह से
माँग रही धूप छाँह से
तत्वत: दरिद्र दोगली
मोतियों से यद्यपि जड़ी !
वादों को
पीठ पर लिए
सीधी रह किस तरह जिए
सूत्रहीन जुड़ नहीं सकी
विशृँखल सोच की लड़ी !
रक्त-रँगे
वस्त्र-वेष में
घूम रही विश्व-देश में
पुष्टि-पत्र मौत का लिए
जीवन की जाँचती घड़ी !
15 जुलाई 1972