अपनी जगह की तलाश में / इंदुशेखर तत्पुरुष
तुम जब छत होते हो ऊंची
विशाल-पसरी हुई
वह झूलती है फर-फर, पंखे की तरह
लटककर किसी हुक से।
पूरी रफ्तार में तब तुम
घरघराते हो बने हुए पंखा
वह फड़फड़ाती है बिस्तर पर
बिछी हुई चादर की तरह।
तुम जब धर लेते हो रूप, बूंटेदार
चटकीली चादर का
वह हो आती है नरम गद्दा
चादर के नीचे।
बेशर्मी पर उतरे तुम
हो आते हो जब कभी गद्दा
उसे होना ही पड़ता है चारपाई बेबस
उसे नहीं मालूम
यह स्वांग भी बखूबी धर सकते हो तुम
और बिछ जाती है वह समतल
सुचिक्कण फर्श की तरह चारपाई के नीचे।
चालाकियों की सारी सीमाएं पार कर
तुम फर्श बनने का खेल भी
रच सकते हो सानंद
क्योंकि तुम जानते हो इस बार
उसे होना ही पड़ेगा
घण के नीचे कुटी हुई
दबी-कुचली गिट्टियां।
अब इसके आगे
और कहां तक बढ़ोगे मित्र!
अब वह बेहिचक
धरती को फाड़ डालेगी
अपनी जगह की तलाश में।