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अपने भीतर / नवनीत पाण्डे
Kavita Kosh से
मैं निकला
अपने भीतर के घर से
ढूंढने अपने आप को
कैसे गढा मैं?
कैसे मढा मैं?
कितना बड़ा है मेरे भीतर का बाज़ार
एक नाम एक परिवार
एक घर
एक शहर के रिश्तों के घेरे में घूमता
झूलता मैं
मेरा एक ईश्वर
हर क्षण मेरे आगे चलता
मुझे अपने पीछे घसीटता
मैं जानता हूं
उसने नहीं बनाया मुझे
मैं ही हमेशा उसे
अपने लिए बनाता हूं
अपने को ढूंढने का नाटक करते हुए
अपने ही में लौट आता हूं
और हर बार इस हार को जीत मान
किसी तुम, वह और हम को
पटाने में लग जाता हूं ।